सदा
एक काया मात्र ।
तुफानी बादलो को बाहो में समेटे
बंदर को तकती
बिस्मित
अस्थिर ।
असहाय प्रकृती की
चीरंतन चींख जैसे अपने लहू में लिये
चलती,
सम्भलति- सम्भालती
थक जाती ।
क्षणिक
स्त्ता से परिचित ।
गलते लोहे की बूंद में तैरती
एक तरनी
ओस की पहली अंकुरित पंखुरि में
दिया जलाये
बेझिजक
सो जाती ।
आज-कल
सदा है क्षण में बिलम्बित ।