ए फ़क़ीर,
तू अपनी सुना
अंजाम-ए-कहानी होठों पे ला
तू भी था ख़ौफ़ों और शकों की
बेचैनियों में बंधा?
या…
सहसा, दुआओं की ऐसी भीड़ लगी
लफ़्ज़ ही नीलाम हो गए
अब्र-ए-मोहब्बत में
हम भी ठहरे फ़क़ीर, पर ईमान से परे
कायर
लफ़्ज़ न मिले तो मोहब्बत बेच दिया
कई साल बीत गये
सूखी पत्तियों की सरसराहट जैसे
हम जहां चले
फाल्गुन भी चला पीछे पीछे
आज यह हरियाली, ये दरिया
रेत की याद क्यों दिलाये
रेत ही हैं अगर सब
क्यों न लफ़्ज़ों पे हम नीलाम हो जाये
ए फ़क़ीर,
तू अपनी सुना
अंजाम-ए-कहानी होठों पे ला
की लफ़्ज़ों पे खुदको ऐसे मिटा न दे
खामोशियों से मोहब्बत किये बगैर ज़िन्दगी गवां न दे
ए फ़क़ीर,
तू अपनी सुना
अंजाम-ए-कहानी होठों पे ला
होठों पे ला