कोई कला का कैदी तोह कोई कृत्य का
बिच में उलझेलूल हम
क्षणिक सुख की झलक क्या मिल गयी
तलब पे उतर आये हम
सोचा था कि अपने बारे में कभी न बोलेंगे, पर
क्या करें
अल्फाज़ मुलाज़िम जो ठहरे सुर्ख आँसुओं के
दबी हुयी दुखों की बुनियाद पे
जिंदगी खड़ी तोह नहीं की जाती
हर ग़फ़लत की जड़ अहंकार तो नहीं होती
अगर होती तो
खामोशियों से यूँ दोस्ती न होती
सालों की बारकियाँ
आज बिखरती न दिखती
बर्फ से बनी मकबरों में हरियाली की अहद न होती
हम तुम न होते तुम हम न होते
आज तूफ़ान भी एलान कर रहे हैं
खुशी की
पलों में बसी दास्तांओं की
आज आगाज़-ये-कार कला व कृत्य की मिलन की
लफ्जों में एक पल को कैद करने की कोशिशों की
खुदा की चाह की
कल का क्या पता
कहीं वज़ूद को कायम किये बिना ही
मुक्त न हो जाएं हम
क्षणिक सुख की झलक क्या मिल गयी
तलब पे उतर आये हम